कैकय देश का राजा प्रतापभानु अत्यंत वीर, साहसी, धर्मपरायण, तेजस्वी और विद्वान् था। उसके शासन में प्रजा सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही थी। प्रतापभानु का अरिमर्दन नामक एक भाई भी था, जो उसी के समान श्रेष्ठ गुणों से संपन्न था। दोनों भाइयों को नीतियुक्त मार्ग बताने तथा उसका अनुसरण करवाने का भार धर्मरुचि नामक परम विद्वान् मंत्री पर था। अपने नाम के अनुरूप धर्मरुचि की धर्म में अगाध श्रद्धा थी। वह भगवान् विष्णु का अनन्य भक्त था और सदैव उन्हीं के ध्यान में मग्न रहता था। इस प्रकार तीन श्रेष्ठ पुरुषों की देखरेख में कैकय देश का शासन-कार्य नीति, धर्म और सदाचार के अनुसार चल रहा था।
कैकय देश के पड़ोसी देश में सोमदत्त नामक राजा राज्य करता था। वह बड़ा क्रूर, मायावी, दुष्ट और पापी व्यक्ति था। भोग-विलास में डूबे रहना उसका नित्य का कार्य था। आरंभ से ही उसकी आँखों में कैकय देश का वैभव और संपन्नता खटक रही थी। वह किसी भी तरह से उसे जीत लेना चाहता था। किंतु बल और शक्ति में उसकी सेनाएँ कैकय देश की तुलना में कमजोर थीं। युद्ध में कैकय देश को जीतना असंभव था, इसलिए उसने माया का सहारा लिया।
एक दिन प्रतापभानु को समाचार मिला कि उसके राज्य में एक शक्तिशाली जंगली वराह (सूअर) ने आतंक मचा रखा है। वह प्रतिदिन किसी-न-किसी को मारकर जंगल में भाग जाता है। प्रजा को इस प्रकार आतंकित देख प्रतापभानु अत्यंत क्रोधित हो उठा। उसने उस वराह को मारने का निश्चय कर लिया। तदनंतर धनुष धारण करके वह उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ से वराह वन की ओर भागता था। दो दिन प्रतीक्षा करने के बाद प्रतापभानु को वराह दिखाई दिया। राजा ने अपना घोड़ा उसके पीछे लगा दिया। वाराह जान बचाता हुआ घने वन में घुस गया। प्रतापभानु भी उसका पीछा करते हुए वन की ओर चल पड़ा। आज वह किसी भी तरह वराह को मार डालना चाहता था। इसी बीच वह अपने सैनिकों से बिछुड़ गया।
वन के बीचोबीच पहुँचकर वराह आँखों से ओझल गया और प्रतापभानु भूख-प्यास से व्यथित होकर इधर-उधर भटकने लगा। सहसा उसे एक कुटिया दिखाई दी। कुटिया के प्रंगण में एक साधु हवन कर रहा था। उसे देखकर जैसे प्रतापभानु की जान-में-जान आई। उसने साधु के पास जाकर अपना परिचय दिया।
साधु ने प्रतापभानु को खाने के लिए फल दिए। तदनंतर वन में आने का कारण पूछा। प्रतापभानु ने सारी घटना कह सुनाई। तब साधु उपदेश देते हुए बोला, ‘‘राजन्, आपके प्रताप से कौन परिचित नहीं है। आपकी श्रेष्ठता का गुणगान तो देवलोक में भी किया जाता है। प्रजा की संतुष्टि से ही स्पष्ट हो जाता है कि आप एक कुशल शासक हो। आपके नेतृत्व में ही कैकय देश महानता के शिखर पर विराजमान है। यह धरा भी आपको पाकर धन्य है। राजन्! अब वह भयंकर वराह आपके राज्य की ओर कभी नहीं आएगा। मैं अपने तपबल से उसे स्वयं ही मार डालूँगा। आप निश्चिंत रहें।’’
साधु की बातें सुनकर प्रतापभानु गद्गद होते हुए बोला, ‘‘मुनिवर! आप जैसे साधुजन की कृपा के कारण ही मैं राज्य की उचित और न्यायप्रिय व्यवस्था करने में सक्षम हूँ। राज्य के समस्त वैभव और संपन्नता के पीछे आपका ही आशीर्वाद है। हे मुनिवर! वराह को मारकर आप मेरी प्रजा पर उपकार करेंगे। यद्यपि मैं आपके इस उपकार का ऋण कभी नहीं चुका सकता, तथापि मैं आपकी सेवा करना चाहता हूँ।’’
साधु हँसते हुए बोला, ‘‘राजन्! हम साधुओं को सेवा से कोई सरोकार नहीं है। लेकिन यदि आप कुछ करना ही चाहते हैं तो अपने राज्य के समस्त बाह्मणों को सपरिवार भोजन करवा दें। इससे उनके आशीर्वाद से आपके राज्य में सुख-समृद्धि का वास रहेगा। आपका यह कार्य सभी को सुख देनेवाला होगा।’’
‘‘जैसी आपकी आज्ञा, मुनिवर! अब आप पुरोहित बनकर मेरे साथ चलने का कष्ट करें, जिससे मैं अतिशीघ इस पुण्य कार्य को संपन्न कर सकूँ।’’ प्रतापभानु ने कृतज्ञ शब्दों में कहा।
साधु थोड़ा सा बौखलाता हुआ बोला, ‘‘नहीं, नहीं राजन्! सामाजिक बंधनों से विमुख हुए मुझे अनेक वर्ष हो गए हैं। अब मैं किसी भी समारोह में सम्मिलित नहीं होता। अतः मैं आपके पुण्यकार्य में पुरोहित नहीं बन सकता। परंतु आपकी इच्छा को देखते हुए मैं अपने एक योग्य शिष्य को आपका पुरोहित बनाकर अवश्य भेजूँगा। वह आपके समस्त कार्य कुशलतापूर्वक संपन्न करवाएगा। अब आप घर लौट जाएँ। ठीक तीन दिन के बाद मेरा शिष्य आपके पास पहुँच जाएगा।’’
इसके बाद साधु को प्रणाम कर प्रतापभानु वापस लौट गया।
तभी वह भयंकर वराह साधु के पास आ पहुँचा, जिसका पीछा प्रतापभानु कर रहा था। देखते-ही-देखते वराह ने एक विशालकाय राक्षस का रूप धारण कर लिया। यह कालकेतु नामक राक्षस था, जिसके उद्डीं और अत्याचारी पुत्रों को प्रजा की रक्षा हेतु राजा प्रतापभानु ने मार डाला था।
कालकेतु भयंकर अट्टहास करते हुए बोला, ‘‘तुमने आज अपनी बुद्धिमत्ता से श्रेष्ठ अभिनयकर्ता को भी मात कर दिया। जिस प्रकार प्रतापभानु को तुमने दिग्भमित किया है, वह कभी नहीं जान सकेगा कि तुम कोई साधु नहीं, बल्कि साधु के वेश में उसके सबसे बड़े शत्रु सोमदत्त हो।’’
साधु-वेशधारी सोमदत्त भी अपने वास्तविक रूप में आ गया और हँसते हुए बोला, ‘‘कालकेतु! इस योजना के पूर्ण होने में तुम्हारा योगदान सराहनीय है। यदि तुम उसे यहाँ तक न लाते तो हमारा षत्रं कभी सफल नहीं होता। अब केवल अंतिम कार्य रह गया है। कालकेतु! अब तुम शीघता से बाह्मण बनकर प्रतापभानु के पास जाओ और योजना का अंतिम चरण भी पूर्ण कर दो।’’
इसके बाद कालकेतु और सोमदत्त अपने-अपने स्थानों की ओर चले गए।
उधर प्रतापभानु को ज्ञात नहीं था कि वह दो मायावी और पापी लोगों के बीच फँस चुका है। वह तो महल में पहुँचते ही बाह्मण-भोज की तैयारी में जुट गया। उसने सभी बाह्मणों को सपरिवार भोजन पर आमंत्रित भी कर दिया।
निश्चित दिन कालकेतु भी पुरोहित बनकर राजा प्रतापभानु के पास जा पहुँचा। प्रतापभानु ने उसका यथोचित आदर-सत्कार किया। भोजन से पूर्व कालकेतु भोजन के निरीक्षण का बहाना करके रसोईघर में जा पहुँचा और उसमें मांस मिला दिया। जैसे ही बाह्मण भोजन करने बैठे, अचानक एक आकाशवाणी हुई-‘‘ठहरो! यह भोजन आपके गहण करने योग्य नहीं है। इसमें मांस मिला हुआ है।’’
आकाशवाणी सुनते ही चारों ओर हाहाकार मच गया। बाह्मण क्रोधित होकर अपने-अपने स्थानों से उठ खड़े हुए और प्रतापभानु को शाप देते हुए बोले, ‘‘अधर्मी, पापी! तूने मांस परोसकर हमारे धर्म को भष्ट करने का प्रयास किया है। तेरा यह कुकृत्य राक्षसों के समान है। अतएव हम तुझे शाप देते हैं कि तू परिवार सहित राक्षस-योनि में जन्म ले।’’ इसके बाद क्रोधित बाह्मण वहाँ से चले गए।
यह सब इतनी तेजी से हुआ कि प्रतापभानु को कुछ समझने का अवसर ही नहीं मिला। उसे जब होश आया तो उसने सर्वप्रथम पुरोहित बने कालकेतु को ढूँढ़ना आरंभ किया। लेकिन वह वहाँ से जा चुका था। बाह्मणों का शाप प्रतापभानु को व्याकुल करने लगा।
इधर जब सोमदत्त को शाप की बात पता चली तो उसने उसी समय सेना लेकर कैकय देश पर आक्रमण कर दिया। बाह्मणों के शाप ने प्रतापभानु को पहले ही निस्तेज कर दिया था। इसी के चलते युद्ध में उसका पक्ष कमजोर पड़ता चला गया। अंत में प्रतापभानु अपने भाई अरिमर्दन और मंत्री धर्मरुचि के साथ वीरगति को प्राप्त हुआ।
शाप के कारण अगले जन्म में प्रतापभानु ने विश्रवा ऋषि के घर जन्म लिया और रावण के नाम से विख्यात हुआ। उसकी माता राक्षस-कुल की थी। प्रतापभानु के भाई अरिमर्दन ने कुंभकर्ण और धर्मरुचि ने विभीषण के रूप में जन्म लिया। भगवान् विष्णु का अनन्य भक्त होने के कारण धर्मरुचि राक्षस योनि में भी परम तपस्वी हुआ।